'नारी तेरे रूप अनेक ''

'नारी 'शब्द  शक्ति का प्रतीक  है ,और नारी को अपने जीवन में कई रूप लेने पड़ते है और वह ये सभी रूप अच्छी तरह से निभाती है। नारी से ही ये संसार चक्र आगे बढ़ता है। नारी ईश्वर का वरदान है ,जो हमें महानता  का ज्ञान देती है। अगर नारी न होती तो कुछ भी न होता। प्यार और बलिदान का दूसरा रूप 'नारी' है।
        नारी जब पुत्री के रूप में जन्म लेती है ,तो माता पिता के जीवनमे खुशियाँ  भर देती है। अपनी चहक से घर आँगन को महका देती है। जब विदा होकर ससुराल जाती है तो वहाँ  पर भी सबको सहजतासे अपना लेती है। अपना घर-बार,  माता -पिता सबको भुलाकर सास ससुर  को ही अपने माता पिता का दर्जा देती है और गृहलक्ष्मी  बनकर अपने कर्त्तव्य का पालन करती है। पत्नी  के रूपमे  वह पति को एवं  उसके परिवार के सदस्योंको ,उनके गुण -दोषो  सहित अपनाती है। उनकी पसंद -नापसंद का ख्याल रखती है। नारी में ही वह शक्ति है  जो हर नए रूप में अपनेआपको आसानी से ढाल सकती है। नारी का सर्वश्रेष्ठ  रूप ''मातृत्व'' का है। नौ महीने तक बच्चे को अपनी कोख में पालती है और प्रसूति की अपार  पीड़ा को सहकर संतान को जन्म देती है ,तब उसका दूसरा जन्म होता है। अपना अस्तित्व ही वो भूल  जाती है। संतान की परवरिश में ही वो अपना समय बिताती है ,उसकी हर बात में ममता झलकती  है ,उसकी सर्वश्रेष्ट परवरिश की बजह से ही तो हमें शिवा जी महाराज, महाराणा प्रताप और श्रीराम जैसे बहादुर पराक्रमी राजा मिल पाये। हर रूप में नारी की गरिमा कुछ और ही होती है। बहन के रूप में वह अपने भाई की मंगलकामना करके रक्षाबंधन और भाईदूज मनाती  है ,अपने भाई की सुख समृद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना  भी करती है।
         जब वह सास बन जाती है तो आनेवाली बहु को अपनी बेटी मानकर उसका स्वागत करती है। उसे उसके कर्त्तव्य समझाते  हुए उसका  अधिकार सौंपती  है। उसे घर के रीतिरिवाज  समझाती  है। हर रूप में नारी श्रेष्ट है। उसके बगैर यह संसार अधूरा है।


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